एक खत पोस्ट ऑफिस के नाम



मेरे प्यारे पोस्ट-ऑफिस
ख़त लिखने की बात जब भी होती है तुम्हें ना जोड़ना कैसे हो सकता है। लोग अब तुम्हारे ठौर का रास्ता भूल गए हैं। तो सोचा तुम्हारा ही हाल-चाल पूछ लूँ। जैसा कि तुम्हें देखता हूँ मैं। जंग लग रहे शरीर पर से पेंट उतर रही है।
क्या ये सब तुम्हें पता था कि ऐसा भी हो सकता था तुम्हारे साथ। तुम तो हर-दिल अज़ीज़ हुआ करते थे।
अनेक भावों से भरे पत्रों को रखते थे अपने आरामगाह में मसरूफ़। डाकिया जो कभी सबका खासमखास हुआ करता था, स्याही में छिपे लब्जों को किश्त-दर-किश्त अपने सही पते पर पहुँचा दिया करता था।यहाँ तक कि खाली कागज़ भी एक सफ़ल और खास पैगाम हुआ करती थी।  तुम तो रिश्तों के बनने-संवरने का मुख्य-केंद्र हुआ करते थे। और फ़िर तुम्हारा इस बियाबां में होना! क्या बदलाव इतना ज़रूरी है? शायद हाँ पर मुझे तो किसी भी चीज़ का बिसरना कचोटता ही है। खैर! तुम होगे शायद कही, किसी सुदूर गाँव में निभा रहे होगे अपना रिश्ता, ऐसा जरूर होगा।
तुम्हारे होने के सफरनामे का सुबूत दिल के शामियाने में हमेशा रहेगा। तुम्हारी यादों के अनेक बिम्ब हैं 'लाल-बक्से'! जैसे उस छोटे बच्चे का अपने बाबा के कंधे पर चढ़कर तुम्हारा ताला खोलना हर सुबह। नज़रों का तुम्हें बड़े कुतूहल से देखना, तुम्हारे भीतर झांकने की कोशिश करना। तुम्हें नए रंग से पुतते देखना। तुम बहुत सारे भूला दिए गए रिश्तों की एक कड़ी हो। अब भी देखता हूँ कि तुम हो कहीं जहाँ शायद 'बदलाव' अभी नहीं पहुँचा तब तक तुम सुकून से अपने मन को जी सकते हो। उम्मीद है ये ख़त तुम तक पहुँचेगा और इस बार तुम्हें इसे किसी और के सुपुर्द नहीं करना बल्कि अपने पास रखना है। ये ख़त तुम्हारे लिए है।
एक वक्त था जब असद ताउम्र ख़त लिखते रहे। ख़त लिखना तो एक कारीगरी थी। रिल्के, ज़िब्रान, ट्वेन, चेख़व, काफ्का, शेली, फ्रेंक्लिन, ज़ोयस, हेमिंग्वे... जाने कितनों ने ही अपना दिल उतारा है ख़त पे।
जब लिहाफ़ ओढ़े कोई सर्द रात किसी ख़त से बातें नहीं करती तो क्या होता है। ख़त लिखना एक समृद्ध परंपरा रही है। ख़त दीवारों के पार जाकर आजादी का पैगाम पहुंचाता रहा है। ख़त माने ..एक ऐसी दुनिया जहाँ दूरियाँ एक-दूसरे से मिल सकती थीं, बातें कर सकती थीं। ख़त तो कई तरानों का विषय रहा है, कई फिल्मों का किरदार रहा है, कई बार इसने धागों को जोड़ा है।
फिर, एक दिन ऐसा होता है कि हम भूल जाते हैं ख़त लिखना और एक रिश्ता ख़त्म हो जाता है। पर मेरे लिए तुम सब हो वहीँ अतीत के बगीचे में ही सही! बदला तो बस इतना है कि डाकिया अब उस गली नहीं गुज़र रहा होता है जहाँ मौजूद सारी खिड़कियाँ कभी उसका इंतजार कर रही होती थीं। संवाद की एक लड़ी गुम हो गयी है। ख़त अब सिरहाने नहीं पाए जाते, नाही किसी बक्से में। अब कोई ख़त पढ़ते पूरा दिन और सारी रात नहीं गुजारता। अतीत के अहसासों का एक और पुल गिर चुका है। बस कुछ मलबे का सामान बाकी है कहीं जहाँ उसे समेटकर रखा गया है बड़े प्यार से अभी भी।
पोस्ट-बॉक्स, तुम्हारी सोहबत, तुम्हारी दोस्ती, अफ़साना...सब याद रहेगा।
फ़िर से मिलेंगे तुमसे । ख्वाबों में ही सही। खाबों में मिलना तो तभी होता है जब किसी की यादों की छाप मन पे गहरी हो। ख़याल रखना।
तुम्हारा दोस्त कोई।


उत्कर्ष

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किसी तस्वीर में दो साल - उपांशु