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मील के पत्थर
रोमियो ओ रोमियो
यूपी में जो एंटी रोमियों स्क्वाड बना है, उस से मुझे अपने बचपन के दिनों पर अतिरेक हर्ष हो रहा है. हर्ष का दूसरा विषय ये है कि मैं बिहार में हूँ, जो यूपी के पास है पर यूपी नहीं है. थोडा मुझे नीति- निर्धारण करने वालों की सोच पर भी हर्ष हो रहा है कि वो किस गफलत में क्या कर बैठे हैं. बचपन से जो मुझे प्रेम का अनुभव रहा है और जिस प्रकार तथाकथित मनचले रगेदे जा रहे हैं, मुझे यूपी वाली पुलिस पर भी अफ़सोस हो रहा है. वो प्रेमियों की मनोस्थिति और प्रेमिकाओं की गुंडागर्दी समझने में असफल रहे हैं. इस से यही निष्कर्ष निकलता है कि हो सकता है एंटी रोमियो स्क्वाड वाले या तो एकतरफ़ा प्यार वाले रहे होंगे या भगवान ने उन्हें भाग्यशाली समझा होगा इसीलिए उनके पैसे और ह्रदय का ख्याल करते हुए उनके जीवन में प्यार का प्रवेश कराया ही नहीं होगा. दो तीन परिस्थितियों पर ध्यान देना आवश्यक है. पहले तो भारत में प्रेम का व्यवहारिक पक्ष समझा जाए. १. अगर लड़के को प्रेम हो गया ...
Jane Eyre - A thoughtful journey
Whenever we are depressed we want someone to relate to. And what can be more relatable than a book. I find same relating and inspiring element in the novel JANE EYRE which was penned down in nineteenth century by Charlotte Bronte. It revolves around the life of a girl, from her childhood to marriage. While reading it I was so much engrossed in the story that I felt as if I know Jane personally. It took few days to complete and every time I picked it up, there was an excitement to know more about Jane. Her childhood was not normal. It was in fact tough. I felt pity when her cousin hits her, at the same time, I felt hatred for her savage aunt and cousins. It imparts a sense for the kind of life an orphan child leads all around the world. Anyway, at that instant I wanted Jane to run aw...
वीकेंड डायरी : गम-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज्मर्ग इलाज
( इस लेख का संक्षिप्त रूप आज दैनिक भास्कर से प्रकाशित हुआ है. लिखते हुए कुछ ज़्यादा लिख गया था, सो बाकी इधर है. - अंचित) पांच साल की औपचारिक ट्रेनिंग और उसके पहले और बाद मिला कर कुछ दसेक साल का वास्ता साहित्य और कविताओं से, इतने सालों के अनुभव से जो एक वाजिब निष्कर्ष निकल कर सामने आता है वो ये कि हमलोग दरअसल पूरा जीवन एक बढ़िया पाठक बनने की प्रक्रिया में होते हैं और बढ़िया पाठक पूरी तरह से निर्भर होता है बढ़िया कवियों,लेखकों पर. पैमानों पर बहस तो चंगेज़ खान से ज़माने से शराबबंदी तक जारी है और रोज़े क़यामत तक उसको दरबदर चलना है. पर फिर भी गुस्ताखी माफ़. बढ़िया पाठक जो होता है वो घाघ होता है, अपना मसाला, अपनी दवा, उसके चंगुल में अब फंसे तो तब फंसे. जैसे कोई बगुला. (सुधांशु फिरदौस अपनी ताज़ी कविता में लिखते हैं , "वक़्त एक बगूला है जो किसी को भी अपने चपेटे में ले सकता है" भैया, ये बढ़िया पाठक भी ऐसा ही है. खैर सुधांशु पर बाद में आते हैं.) बगुले हमेशा फ़िराक में रहते हैं और पाठक भी ऐसे ही हैं.और अगर मैं मान लूं कि कई धाकड़ बगुलों के बाद, मेरा भी नम्बर आता है तो काम की बात शुरू हो. हर ...