वीकेंड डायरी : गम-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज्मर्ग इलाज


( इस लेख का संक्षिप्त रूप आज दैनिक भास्कर से प्रकाशित हुआ है. लिखते हुए कुछ ज़्यादा लिख गया था, सो बाकी इधर है.  - अंचित)

पांच साल की औपचारिक ट्रेनिंग और उसके पहले और बाद मिला कर कुछ दसेक साल का वास्ता साहित्य और कविताओं से, इतने सालों के अनुभव से जो एक वाजिब निष्कर्ष निकल कर सामने आता है वो ये कि हमलोग दरअसल पूरा जीवन एक बढ़िया पाठक बनने की प्रक्रिया में होते हैं और बढ़िया पाठक पूरी तरह से निर्भर होता है बढ़िया कवियों,लेखकों पर. पैमानों पर बहस तो चंगेज़ खान से ज़माने से शराबबंदी तक जारी है और रोज़े क़यामत तक उसको दरबदर चलना है. पर फिर भी गुस्ताखी माफ़. बढ़िया पाठक जो होता है वो घाघ होता है, अपना मसाला, अपनी दवा, उसके चंगुल में अब फंसे तो तब फंसे. जैसे कोई बगुला. (सुधांशु फिरदौस अपनी ताज़ी कविता में लिखते हैं , "वक़्त एक बगूला है जो किसी को भी अपने चपेटे में ले सकता है" भैया, ये बढ़िया पाठक भी ऐसा ही है. खैर सुधांशु पर बाद में आते हैं.) बगुले हमेशा फ़िराक में रहते हैं और पाठक भी ऐसे ही हैं.और अगर मैं मान लूं कि कई धाकड़ बगुलों के बाद, मेरा भी नम्बर आता है तो काम की बात शुरू हो. हर समय में बहुत मुश्किल रहा है बढ़िया पढ़ना तो जो किताब्ची लोग हैं, खोजते रहते हैं. पटना में रहते हुए ये मुश्किल काम है- ढंग की किताब की दुकानें कम हैं, जो हैं वहां किताबें कम हैं, पुस्तकालय बंद होते जा रहे हैं और किताब की दुकानों में गोष्ठियां करने की कोशिश में मेरे शिक्षकों के बाल सफ़ेद हो गये. पर पिछला हफ्ता अच्छा था - उदास ठण्ड थी सो किसी तरह के अभिनय की आवश्यकता नहीं थी, कमरे को गर्म रखने वाला हीटर ख़ुशी ख़ुशी ओवरटाइम कर रहा था और कुछ बेजोड़ किताबें और कवितायेँ पढने को मिल गयीं.  
जो चाय पीते हैं वो जानते हैं कि आम चाय से कुछ फर्क नहीं पड़ता, कड़ी चाय की ज़रूरत बदस्तूर रहती है. कविताओं की जो मास मनुफक्चारिंग होती है, उसमे छिलका ज्यादा होता है और जूस कम. ये सब पाठक की हैसियत से कहना पड़ता है. जब जब कवि होता हूँ, इस "छिलका-थ्योरी" पर कम विश्वास रहता है. बहरहाल, प्रभात की चर्चा अरुण कमल से कई बार सुनी थीं, मनोज कुमार झा ही के जैसे. अलग कवितायेँ पढने की चाह रखते हुए बहुत मगजमारी करने के बाद ये तय किया है कि औसत से तौबा की जाए और अलग डिक्शन, शैली और भाषा के नयेपन की तलाश हो. रविश और गिरीन्द्र भाई के लप्रेक से यही आकर्षण था- कम शब्दों में सब कहना,शैली का आकर्षण.  मनोज भाई के बाद प्रभात भी ऐसे ही एक कवि मिले. उनके बारे में कुछ नहीं पता था, अब भी नहीं है. सिर्फ सफ़ेद पन्ने पर टंके काले अक्षर हैं लेकिन कवि को कविता से ज्यादा जान कर करना भी क्या है. किसी सन्दर्भ में एक बार मनोज भाई बोले, "बंधू बिना करुणा कविता कैसे?" गुरु कहते थे, कविता दुखी ह्रदय में घर करती है. प्रभात का जो संग्रह हाथ लगा, दो साल पुराना है- "अपनों में नहीं रह पाने का गीत." पूरा संग्रह रूंधे गले से पढना होगा. कवि बस अपने सब बंधू बांधवों को खोज रहा है इनमें , याद रखने की कोशिश, माँ की याद- "मैं अभी भी उस पानी को अपने शरीर पर बहता हुआ देख सकता हूँ/जिसमे माँ ने मुझे नहलाया." माँ जो गोबर की हेल पटकती है बच्चे पर, जब कवि भींग रहा है भैंस की पेशाब में, जब पुरुष हुक्का पी रहे हैं. माँ जिसको -"अपने सारे बच्चों का धयान रखना होता है/ वे चाहे जीवित हों या मृत." ऐसे ही फांसी झूल गयी बहन की याद, मर चुकी बुआ जिसके जैसा एक सुख था जीवन में. मेरी माँ इन कविताओं को सुनते हुए आधे घंटे रोते रही. प्रभात को समय देना होगा. बार बार उस ओर लौटना होगा पाठक को भी और सीखते हुए कवि को भी. 
समालोचन ब्लॉग ने सुधांशु की कुछ कवितायेँ छापी हैं. उनकी छोटी कवितायेँ काफी समय से पढ़ रहा हूँ- गंभीर घाव करने वाली छोटी कवितायेँ. भाषा से और शैली से खेलना ज़रूरी है, और इसमें एक कौन्शिअस समझ भी ज़रूरी है. सुधांशु गणितज्ञ हैं, सो उनका हिसाब बराबर रहता है. दोहराव से दूर बार बार खुद को रीइन्वेंट करने की जद्दोजहद. अधेड़ हो चुके कई युवा कवियों में ये कम है. फिर कविता का सामाजिक पक्ष कितना है इस पर बहस नहीं होनी चाहिए. जितनी संख्या में हिंदी के पाठक हैं, ये बहस अब अपना सरोकार खो चुकी है. बढ़िया कवि लौटता है हमेशा- सुधांशु भी लौटते हैं एक कविता में कालिदास की ओर. चार साल पहले मैंने कालिदास की ओर कविता में कदम बढ़ाये थे, समान से विषय पर सुधांशु लिखते हैं- "कोई नहीं जानता कहां से आता है कालिदास/कोई नहीं जानता कहां को चला जाता है कालिदास/हर कालिदास के जीवन में आता है एक उज्जैन/जहां पहुंच वह रचता है अपना सर्वश्रेष्ठ. "
दास्ताने साहित्य में भाषा की जंगे आज़ादी है कविता. तो ये समीक्षाएं तो कतई नहीं हैं. सोच के बढ़ने की प्रक्रिया में नोट होता हुआ पन्ना भर है. ना कुछ छोटा करने की कोशिश ना बड़ा दिखने का प्रयास. पूँजीवाद हर कुछ व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखना चाहता है, शैक्षणिक सिस्टम, सब कुछ अप्लाई करता हुआ लेकिन उन से परे कभी कभी  चिरंतन सत्य पीछा करता है- इन समस्त विध्वंस निर्माण के बीच प्रयोजन खोजता हुआ. जैसे जैसे सब नकली होता जाता है, सच की तलाश में आदमी अकवियों से मनमुटाव कर लेता है, कुकवियों से मतभेद करता और कवियों का सर कलम करता जाता है और उनकी कविताओं से करना चाहता है प्रेम. असद, दिल्ली से कुफ्त होकर, अपने बंधू बांधवों के नाटकों से कुफ्त हो कर, जहाने-इश्क से कुफ्त हो कर लिखता है - "लिखता हूँ "असद" सोजिशे-ए-दिल से सुखन-ए-गर्म/
ता रख ना सके कोई मेरे हर्फ़ पर अंगुश्त." कविता जिंदाबाद.



(अंचित कवितायेँ लिखता है. )

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