( इस लेख का संक्षिप्त रूप आज दैनिक भास्कर से प्रकाशित हुआ है. लिखते हुए कुछ ज़्यादा लिख गया था, सो बाकी इधर है. - अंचित) पांच साल की औपचारिक ट्रेनिंग और उसके पहले और बाद मिला कर कुछ दसेक साल का वास्ता साहित्य और कविताओं से, इतने सालों के अनुभव से जो एक वाजिब निष्कर्ष निकल कर सामने आता है वो ये कि हमलोग दरअसल पूरा जीवन एक बढ़िया पाठक बनने की प्रक्रिया में होते हैं और बढ़िया पाठक पूरी तरह से निर्भर होता है बढ़िया कवियों,लेखकों पर. पैमानों पर बहस तो चंगेज़ खान से ज़माने से शराबबंदी तक जारी है और रोज़े क़यामत तक उसको दरबदर चलना है. पर फिर भी गुस्ताखी माफ़. बढ़िया पाठक जो होता है वो घाघ होता है, अपना मसाला, अपनी दवा, उसके चंगुल में अब फंसे तो तब फंसे. जैसे कोई बगुला. (सुधांशु फिरदौस अपनी ताज़ी कविता में लिखते हैं , "वक़्त एक बगूला है जो किसी को भी अपने चपेटे में ले सकता है" भैया, ये बढ़िया पाठक भी ऐसा ही है. खैर सुधांशु पर बाद में आते हैं.) बगुले हमेशा फ़िराक में रहते हैं और पाठक भी ऐसे ही हैं.और अगर मैं मान लूं कि कई धाकड़ बगुलों के बाद, मेरा भी नम्बर आता है तो काम की बात शुरू हो. हर ...
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