सौंफ की पतली डंठलों पर ओस की बूंदों में और आसमां की आँखों पर चमकते फ़्लैश में कुहासे की तस्वीर जो खिंचती है, कैमरे की खींची हुई तस्वीर से कहीं बेहतर है. दो साल बाद, सबा, जब यह तस्वीर रंकेश को दिखाएगी, सर्द सुबहों को उठने की आदत न होने से मचल उठेगा वह एक क्षण के लिए ही, फिर नींद प्यारी होने की वजह से कोहरे के लिए अपना प्रेम रातों में ही ज़ाहिर करना शाइस्ता समझेगा. लेकिन दो साल बाद, ठंड उसे सिर्फ बेचैनी ही दे पाएगी, प्रेम या प्रेम की गर्माहट में उत्पन्न हुई आकांक्षाएं भी जिससे उबार लाने में विफल हो जाएं. तत्काल अज्ञानता के बुलबुले में प्रागैतिहासिक ख़ुशी से लबरेज़ आसमां घंटे का चौथाई हिस्सा एक तस्वीर के नाम कर देती है. सौंफ की हर डंठल पर ओस की बूँदें, न कम न ज्यादा; गुरुत्वाकर्षण की मुरीद सब एक सी कि पारदर्शी मोतियों की एक लड़ी सौंफ की हर सब्ज़ छड़ी से गिरे तो मिटटी के फर्श पर केवल एक ही आवाज़ हो. कुहासा तने से लिपटा ज़रूर हो लेकिन गौर से तस्वीर देखने वालों को बूँदें अलग अलग जगहों पर फिसलती दिखे गोया जिस्म पर चिपकी बूँदें हों जो तौलिये से सूखती नहीं और गर्म पानी के भाप में नग्नता की भांति छिपती है.
विफलता कभी तैयारी पूछ कर नहीं आती.
और अगर बगैर प्रयास लगाये हाथ आये, अथक परिश्रम के बाद भी तो, निराशा और नास्तिकता साथ लाती है.
अनंत पुनरावृत्ति के सिद्धांत को इस तरह से जोड़कर देखना उचित तो नहीं होगा, फिर भी, पूरी ज़िन्दगी की हर निराशा, हर विफलता, क्षण दर क्षण, उसी प्रकार दोबारा जीनी पड़े तो अंत सुखी होने के बावजूद इंसान टूट ही जायेगा. शायद इसी लिए दो साल बाद जो तस्वीर सबा को बेहतरीन ही लगी, आसमां के मुख से एक अधमरा ‘ओ, ये...’ ही निचोड़ पायी. यादों की तरह ही तस्वीरों के साथ भी ये बड़ी मुसीबत है कि किसी एल्बम से हटा देने के बाद भी, फ़ोन और कंप्यूटर से डिलीट कर देने के बाद भी, कहीं न कहीं से ढूंढ ही ली जाती हैं. भूत कभी पीछा नहीं छोड़ता, भविष्य में तो और भी नहीं क्योंकि भुलाया गया जो यादों में और दफनाया गया याद्दाश्त की गहराइयों में, हाड़-मांस का शरीर ओढ़ प्रकट हो ही जाता है.
और विफलता तत्काल सुन्न कर देती है सारे जज़्बात; समझने लायक नहीं रहती है अपना भला बुरा कोई. नहीं तो क्यों कोई अपने बुरे वक़्त का इज़हार करे कभी और क्यों बिगड़ी हुई तस्वीर जो धरती से आकर्षित बूँद का प्रेम पत्र ही रह गयी सिर्फ, भेजी जाए बड़ी बहनों को ताकि दो साल बाद भी ये उसके निराश प्रेमी के लिए प्रेम पत्र ही बन कर रह जाए.
क्योंकि इस बात को दो साल हो गए, आसमां भूल चुकी है कि विफलता से खिन्न उसने तस्वीर कभी किसी को भेजी ही नहीं, सबा को भी नहीं. आखिर क्यों उँगलियों द्वारा चित्त से किये गए धोखे को कोई सार्वजनिक बनाये? यद्यपि सिर्फ बूँदें ही नहीं जो इंसानी सनक के लिए पूरे पंद्रह मिनट अपना विसाल थाम ले. क्या रावण हिला था एक टांग पर अपनी तपस्या के दौरान, क्या उसकी भौंहे हिली थीं, घुटने कांपें थें उसके, उसकी अंगुलियाँ? आसमां ने उस वक़्त फ़ोन वहीँ बिस्तर पर पटक दिया और नहाने चली गयी. और सबा जब नहाकर आई तो उसने आदतन उठा लिया, छोटों की हरकतों पर नज़र रखने के लिए, बड़े होने की हैसियत से. और बहुत हद तक प्रेम प्रसंगों में अपनी दिलचस्पी होने की वजह से. आखिर प्रेम में इंसान क्या-क्या काण्ड करता है, ये उससे बेहतर कौन जाने.
अभी कुछ दिनों से आसमां जी के गालों पर आफताब की पूरी नुमाइश होती है. आँखें हर शाम एकांत कोने की तलाश में इधर-उधर भटकती रहतीं और समय अनुसार स्क्रीन को अपना ठिकाना बना लेतीं हैं. चिकित्सकों और आम लोगों में जो बुनियादी फर्क है, वो अनुभूति का है. चिकित्सक बीमारी की नब्ज़ पकड़ने के लिए लक्षण महसूस नहीं करते. इसे प्रोफेशनल होना कहते हैं. सबा कतई प्रोफेशनल नहीं है, अगर होती तो रंकेश को कभी वो तस्वीर न मिलती. दो साल बाद भी नहीं. और चंद क्षणों के लिए ही सही रंकेश को निराशा से मुक्ति न मिलती. वो जैसा कि उसकी आदत है, अपने ख्याली किले के चौके में बगैर रोशनदान खोले ख़याली पुलाव जला रहा होता. इसी वजह से अनुभवों से जुटाए गए सबूतों के आधार पर दूसरों के बारे में राय बनाने की इंसानी आदत की झलक, यदि देखना चाहें तो सबा में भी मिल जायेगी. वो अलग बात है कि ऐसा अन्याय सिर्फ अपनों के साथ ही करना वो सही समझतीं हैं.
इसी लिए गीले बालों में तौलिया लपेट स्वामित्व भरे डेगों से वह कमरे में प्रवेश करती है और फूलों की चादर पर लेटने की प्रवृत्ति से बिस्तर पर आहिस्ते बैठने के पश्चात – कि अभी-अभी ठीक किया था जागने के बाद - दुत्कारे गए उस फ़ोन उठाती है. बिस्तर पर बिछे कम्बल की मखमली ज़र्द फर्श पर सुर्ख गुलाब की चित्रकारी में अपने गाल रगड़ वो कुछ देर पंखे को एकटक देखती है. बाहर कुहासे में ढकी सर्दी और भीतर एलईडी के शीतल प्रकाश में झिलमिलाते कृत्रिम बागान में लेटी वो. ये उन दृश्यों में से है जिससे रंकेश काँप उठता है. न ठण्ड से न वासना से बल्कि दिनचर्या की आपाधापी से. ठण्ड में स्कूल जाने की तैयारियों के दौरान, जब बाहर सूर्य ने भी कुहासे से झाँकने की हिमाकत न की थी उसके कमरे की बत्ती जला दी जाती थी. ट्यूबलाइट की रौशनी आँखों के आवरण पर पड़ते ही उसके नाम की पुकारें तेज़ होने लगतीं. ऐसी सुबहों को अपने नाम से भी नफरत हो जाती है और कृत्रिम प्रकाश द्वारा नींद पर किये गए अत्याचार के लिए घृणा कम पड़ जाती है. और सालों बाद प्रेमिका की आवाज़ में अपने नाम का उच्चारण उस घृणा को जगा देती है जिससे अकेलेपन में छुटकारा पाया था. शायद इसी लिए प्रेम में पुकारू नामों की परंपरा चली आ रही है क्योंकि शेली के शब्दों में कहें तो वन वर्ड इज़ टू ओफेन प्रोफेंड, माताओं, बहनों और मित्रों की कृपा से.
कथित प्रेमिका की आँखें बंद हैं इस वक़्त. पंखें को देखना अपने आप में ही बहुत थका देने वाला काम है. जिस नींद को कनकनाये जल से धोया था वो भौंहों से लिपटती हुई उपरी पलकों पर सरक आती है और आवरण भींचती हुए गालों से फिसल जाती है. आवरण में छिपकर प्रेमी का दृश्य बंद आँखों पर पसर जाता है और उच्छ्वास में उसका नाम भाप बन कमरे की हवा. गुलाबों के लिए कम्बल को टटोलने पर फोन हाथ आता है जिसे विफलता से खिन्न आकर उस उपवन में ठुकराया गया. प्रेमिका की हथेली कुछ क्षण फ़ोन को ढकने के लिए स्थिर रहती है. रात के वक़्त हुई बातें याद कर उँगलियों से फोन को दोबारा ठुकराया जाता है. इस बार एहतिहात से कुछ इंच दूर सरका कर.
सुकून. क्या महत्त्वकांक्षा इतनी ज़रूरी है कि सुकून भूल जाए इंसान? सुकून. प्रेम में. खुद में. खुद में? अकेलेपन का सुकून. अकेलापन. सोलिट्यूड. फिर प्रेम क्यों. पहले भी तो अकेली ही थी. ये कैसा आत्मविश्वास है जो सोलिट्यूड की मुलाज़िम बन सुकून का आवरण ओढ़ लेती है? महत्वकांक्षा कैसे सुकून के तेज में इंसान को उत्तेजित करती है? सुकून. आकांक्षा. इच्छा. इनके होते हुए कैसा सुकून, शेश? इच्छा. डिजायर. सिर्फ एक शेष. सुकून. सिर्फ सुकून. शेश. शेष कुछ और नहीं.
आँखें खुलती हैं, मानों अकस्मात् कमरे में कोई घुस आया हो. पंखा अब भी लटका हुआ है, ठुकराया हुआ फ़ोन मखमली फर्श पर पड़ा हुआ, ज़र्द रेशों के फीकेपन में दूधिया प्रकाश गुलाब की लालिमा में भोर के आसार ढूंढ ही रहा है, सिर्फ एक तौलिया ही है जो केशों की संगत में अब गीला हो गया. उठ बैठने के बाद प्रेमिका, झटके से तौलिया खींच लेती है. जो केश टूटकर लिपट गए, उन्हें झाड़ तौलिये को किवाड़ पर पसार देती है. पीछे मुड़कर उसी स्वामित्व से फ़ोन उठाती है जिससे कमरे में दाखिल हुई थी. दो साल बाद प्रेमी को जो तस्वीर भेजी जायेगी, फिलहाल स्क्रीन पर नहीं थी. प्रेमी का मेसेज भी न था.
***
रंकेश बाज़ार में था जब उसे तस्वीर मिली. हर बार की तरह पॉकेट में फ़ोन गुमा दिया गया था ताकि स्थिरता से एक-एक रुपये के लिए मार की जा सके. और दाम तय हो जाने के बाद नोट से ज्यादा सिक्के दिए जाने पर भी दो चार बात सुनाने को मिल जाए ताकि बाद में कश भरने के सुकून में कोई कमी न आये. उसके बगल में उसी की उम्र का एक कोई ऐसी शालीनता से सब्ज़ी खरीदता है मानों बेचने वाले का बहुत एहसान हो उस पर. पैसे देकर धन्यवाद् कहता है और कुचली हुई सब्जियों के पथ-प्रदर्शन में बढ़ जाता है. रंकेश के ह्रदय से फूटता अट्टाहास सामाजिक दबाव में पिघल मूंह से निकलते ही होठों पर मुस्कान बन पसर जाता है. और रंकेश सिर हिलाता दूसरे रास्ते से निकल लेता है, मीना बाज़ार की ओर. जहाँ की संकरी सड़कों पर बाछें, बच्चें, गौ और माताएं यूँ ही हर शाम तबीयत दुरुस्त करते हैं. जहाँ इतने थोक बाज़ार हैं कि सड़कों पर आवाजही अपने आप में एक अजूबा है. दो साल पहले सादिकपुर हाट से गुज़रना मुश्किल था, अब यदि काम न हो तो सादिकपुर जैसी जगह ज़हन में आती ही नहीं, वहां से गुज़र जाने के बाद भी. हाटों और मंडियों की सड़कों पर चलने के लिए भी थेथरई में पोस्ट-ग्रेजुएट होना पड़ता है. फिर यदि कोई सभ्यता के ढोंग से उपजा कीड़ा, मंडियों से बगैर झिड़की के लौट आता है तो उस पर तरस ही किया जा सकता है. एक और जो इन्सान बने बिना बाज़ार से लौट गया. एक और जो गालियों की बहती गंगा में खुद से शालीनता के मैल न धो सका. बढ़ते कदमों के साथ सड़क संकरी होती चली गयी. हर दस कदम पर पगडण्डीनुमा गलियों से जन सैलाब पैरों पर या चक्कों पर बह आता है या मुख्य सड़क से बह जाता है. पचासवें कदम पर रंकेश ऐसी ही किसी पगडंडी में बह जाता है. सिगरेट की गंध लगते ही, हाथ भींच, कदम तेज़ कर लेता है.
लौट आना इतना ज़रूरी हो जाएगा इन दो सालों में सोचा न था.
लौटने से कुछ सौ डेग पहले, उँगलियों की त्वचा परायी होने लगी. जिस्म के फर्श पर लहलहाते घास की जड़ों का एहसास पूरे विश्व को हुआ. उभरी नसों पर गिलहरी दौड़ गयी और हथेलियों पर सब्ज़ी के झोले के बोझ ख़त्म हो गया. पूरे ब्रह्माण्ड में पृथ्वी के अलावा सिर्फ एक रौशनी ही रह गयी. चहुँ ओर, ऊष्म और गुरुत्वाकर्षण रहित. गर्दन पर प्रेमिका की उँगलियों से बनायीं गयीं आकृतियाँ बादलों की तरह घेर रही थी. और आकारविहीन हो रहा था खुद का होना.
सबा. शब्दों का इस्तेमाल केवल गालियों के लिए किया जा सकता है. सबा. सुकून. सबा. उजास. कोहरा. अन्धकार. सबा. सर्दी. बारिश. गर्मी. सबा. वसंत. सबा. सर्द दोपहर की लजाती धूप. सुकून. सबा. सुकून.
नीले दरवाज़े के सामने टांगें थम जाती हैं.
सबा. इच्छाएं शब्दों से ज्यादा कुछ होने की जतन में शब्द तक पास रहने नहीं देतीं. दूर से मीठे लगने वाले फल, हर बार मीठे नहीं होते. कभी-कभी करीब आ चुकने के बाद जो पास नहीं होते, ख्वाहिश बन इबादतों में हर वक़्त मांगे जाते हैं. मुराद का क्या है कि अगर पूरी हो भी जाती है तो दम निचोड़ कर. और सिर्फ एक बार नहीं. हर सांस के साथ, पूरी ज़िन्दगी. और उस लम्हे के बाद जब अरमानों से खिन्न हो जाए मन, असल ज़िन्दगी तो तब ही शुरू होती है.
ताला खोला जाता है, कलाई पर झोला टिका कर. उसी हाथ से ताले को पकड़ अन्दर घुसकर, प्रेमी दरवाज़ा बंद कर, झोला किनारे रख कब बैठ जाता है, उसे भी इल्म नहीं. खो जाना, खोज आना और खोज लाना खुद को, ईट शिट रिपीट जैसा लूप हो गया इतने साल जीवन से जूझने के बाद. इसी लिए खुद को बगैर पता चले फोन का हाथ में आ जाना कोई बड़ी बात नहीं.
प्रेमी सब्जी मंडी में गोभी का पत्ता कुचल रहा था, जिसकी ताक में सामने खड़ी गाय बहुत देर से थी, जब उसके फ़ोन को मेसेज आया. और ठीक उसी वक़्त शहर के दूसरे छोर पर प्रेमिका तथाकथित मेसेज में भेजी गयी तस्वीर, तस्वीर लेने वाली को दिखा रही थी. तस्वीर लेने वाली दिन भर मूंह के अन्दर से अपनी कोशिका निकालने की नाकाम कोशिश में थक चुकी थी. अधखुली आँखों से प्रेम की बेवकूफी पर सरसरी निगाह दौड़ाती है और एक भौंह उठाकर रफा दफा कर देती है. नींद फिलहाल उसकी ज़रुरत थी. रात को बहुत देर हो जाएगी. उसे ऐसी नींद की दरकार थी जो चेतना को अंतहीन स्याह में छोड़ आये. जो अबस कर दे, हर ख्याल, हर ख्वाहिश; नींद जो ज़िन्दगी से परे हो. लेकिन ज़रुरत न होने पर ज़िन्दगी कभी साथ नहीं छोड़ती. दाहिना हाथ पन्ना पलटने की मुहीम में किताब पर अस्थिर बैठाया गया है. अनामिका अंगूठे से दूरी की चाह में पन्ने के पीछे छिप जाती है और अंगूठा नज़दीकी भाँप पन्ने को सहलाता है. अब तक कितने गोल बने उसके अंगूठे से, आसमां नहीं जानती. ना ही पन्ने में दर्ज काले अक्षर ही चीन्ह पाती है. सारा ध्यान खिड़की के बाहर शाम पर फैल रही लालिमा खींच लेती है. जैसे रिस रहा हो सूरज धीरे-धीरे, सुबह से लटका हुआ अपने होश खो रहा हो. रंग खो रहे आसमान पर अपने अंतिम क्षण बहा रहा हो.
तार सी डालियों पर सुस्ता रही ओस से बेहतर है हर शाम की ये त्रासदी. क्षणिक खूबसूरती का लिबास जो ओढ़ने से पहले ही बिगड़ जाए. और यदि धारण कर भी लें तो अनंत नग्नता के मुकाबले कुछ भी नहीं. पूर्णता धूल भर है इस अपूर्ण मरुस्थल की जो जीवन है. सुन्दरता इस अनंत असुंदर में केवल एक क्षण. क्या चाहता है इंसान जो जीवन भर कयास लगाये बैठा रहता है? क्या सोचता है इंसान उन आखिरी पलों में जब जिस्म से रिसती हुई रूह बह जाती है साँसों के साथ और पता चलता है कि जिसके मुन्तज़िर जी रहे थें वो या तो कभी आई ही नहीं या बिन बताये लौट गई. आसमां. रौशनी जिसमें लहु-सी बहती है. रंगा जाता है जिस पर तारों से बुने हुए अँधेरे को. आखिर क्यों... सौंफ के फूल पर लटका ओस आसमान निगल गया एक सुबह. डंठलों पर रेंगता हुआ, तने की सब्ज़ियत में सब्ज़ हुआ और मिट्टी हो जाने के बाद जड़ का रेशा बन निकला. आसमान ज़मीन के नीचे पानी. नल से पतीले में भर आसमां से सब्ज़ी धुली. थालियों में परोसी गयीं. डाइनिंग टेबल पर रखीं. बोतलें, पतीलें, थालियाँ, कटोरे, लोहे और शीशे के, प्लेट पर छितराया सौंफ, पानी से भरे गिलास, बल्ब, और उसके अन्दर रूह, फैक्ट्री में पिरोई गयी या खरीदे जाने के बाद निगल ली गयी...
बाहर अँधेरा हो जाने के बाद रंकेश ने कमरे की बत्ती जलायी. इस वक़्त तक सबा को उसका जवाब मिल चुका था. तत्काल बात पूरी हो जाने के बाद लेटने के ध्येय से वो कमरे में लौटी. आसमां किताब गोद में रख खर्राटे भर रही थी. मूंह खुला होने की वजह से गाल ठुंसे हुए लग रहे थे. भविष्य में ब्लैकमेल करने के लिए तस्वीर खींचने में क्षण भर का वक़्त लगा. फिर किताब बंद कर निर्धारित स्थान पर बेतरतीब फ़ेंक दिया गया. बालों पर हाथ रख उसके माथे पर होंठ फेर देने के बाद वो खिड़की के पास जा खड़ी हुई. दो साल पहले जिस सौंफ के फूल को किसी किताब के बीच सम्भाल कर रखा था, वो पौध अब नहीं रही. खिड़की के चौखट पर बैठ वो नीचे देखती है. फर्श. दो साल पहले आसमां इसी तरह बैठी थी सुबह के वक़्त. खिड़की ये नहीं थी. अहाता भी दूसरा था. केवल फ़ोन यही था जो अभी सबा की हथेली पर अंगूठे से जकड़ा गया है. उसका फ़ोन. दो साल पहले जो दोनों बहनों में बंटा हुआ था.
- 24/1/2018, 3:08 A.M.
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