कोयला काला होता है - निशान्त

                                                                         

उससे पहली बार मैं कब मिला मुझे भी याद नहीं. शायद उसके असहमति भरे अंदाज़ ने उस तारीख को ही मिटा दिया और छोड़े बस कुछ खूबसूरत पल जो तमाम असहमतियों के बावजूद भी कितने खूबसूरत हैं.

मैं उससे पहली बार एक अनजान जगह के एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर मिला था. मैं बुक स्टॉल पर कुछ पत्रिकाओं को देख रहा था. देखते ही देखते मैंने चेखव की एक कहानी भी पढ़ ली, "एक छोटा सा मज़ाक". मैं खरीदना तो चाहता था कई पत्रिकाओं को पर जेब ने सहयोग ही न किया. कुछ वक़्त बाद एकाएक एक व्यक्ति मेरे पास आकर खड़ा हो गया और बेझिझक ही बोल गया-" भाई, मैं समझता हूँ की तुम पत्रिकाओं को खरीदना चाह रहे हो". मेरी कमी रही है की मैं जवाब नहीं दे पाता एकाएक. हाँ, वास्तव में मैं भी उन पत्रिकाओं को खरीदना चाहता था. फिर उसने कई पत्रिकाओं को खरीदा.

जवाब न देना भी असहमति का सबसे गूढ रूप है. जब पिता से मार पड़ती थी और वो हर बात में माफ़ी माँगने की बात करते थे, तो कैसे पत्थर की मूरत बन खड़ा रहता था. जवाब तो उस वक़्त भी कई थे, पर असहमति का प्रभाव इतना गूढ था कि मैं चुप ही रहा करता था. मैंने बहुत सारे सवालों के जवाब बस 'हाँँ' और 'न' में ही दिया.

पिता पूछते महीने के आखिरी में की-" क्या तुम्हें पैसों की जरूरत है?".

मैं कहता-"हाँ".

मेरे कई दोस्त थे जो उस सवाल का जवाब कुछ इस अंदाज में देते- फिलहाल अभी तो जरूरत नहीं है पर तीन-चार दिन बाद कुछ जरूरी काम है जिसमें कुछ पैसे ख़र्च होंगे. परसों तक तो पैसे थे ही लेकिन कल अचानक कुछ जरूरी काम में वे पैसे भी चले गये.

मुझे पत्रिकाओं को खरीदना था. मैं शेखर से कुछ न बोल सका. पर कहीं-कहीं तो चुप्पी ही सहमति का सबसे बड़ा प्रतीक मान लिया जाता है. मैं पहली मुलाकात में ही उसके स्वभाव के कुछ हिस्से से परिचित हो चुका था.

हम दोनों बुकस्टॉल से निकलकर ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे. तभी एकाएक चीखने चिल्लाने की आवाजें आई. हमदोनों ने बाहर निकलकर देखा तो पता चला कि बाहर पुलिस का एक दस्ता कुछ निहत्थे लोगों पर डंडे बरसा रहा था. कुछ और आगे बढ़ने पर देखा कि पुलिस के डंडे का सामना जो लोग कर रहे थे उनमें अधिकतर औरतें ही थीं. और पुलिस वाले उन्हें बेरहमी से पीटे जा रहे थे.

एकाएक मेरे बगल से छिटककर शेखर उस निहत्थी भीड़ में शामिल हो गया जो बेवजह दमन के दुष्चक्र मे फँसा पड़ा था. शेखर अचानक पुलिस वालों से भिड़ गया. उनसे वह बहसें किये जा रहा था.कुछ पुलिसवाले उसे बेरहमी से पीट रहे थे. फिर अचानक ही एक पुलिसकर्मी ने उसका बचाव किया और फिर वे लोग चले गये. शेखर पिटकर उसी तरह आया जैसे कुछ वक़्त पहले यहाँ से गया था. यह मेरा पहला अनुभव था पुलिसिया दमन का. मैंने हमेशा ही यह देखा है की पुलिस से लोग ठीक उसी तरह डरते हैं, जैसे लोग आततायियों से डरते हैं. बचपन में मुझे भी मोहल्ले के कुछ लोग पुलिस के नाम से ही डराते थे. मुझे बहुत समय तक हिम्मत नहीं हुई की मैं अपनी गलती न रहने पर भी उनके सामने कुछ बोलने का साहस कर सकूँ. कितना विरोधाभास है इस बात में की जिनकी जवाबदेही साधारण लोगों के सुरक्षा की है और साधारण लोग अपने पहरेदारों से ही सबसे अधिक भयभीत रहते हैं.

शेखर लौटा पिटने के बाद भी.वह बिल्कुल अपने नैसर्गिक अंदाज़ में लौटा. तत्काल पिटाई का प्रभाव उसकी बाहरी दुनिया में जरूर हावी था.किंतु उसके मुखमंडल पर एक मुस्कान छायी थी.वह हँसते हुए लौटा मेरे पास.

मेरा बहुत दिनों से काम रहा है लिखना. मैंने तमाम चीजों पर लेख लिखा. मेरे लेख का विषय देवालय से लेकर वेश्यालय तक रहा.अब बस अंतर इतना था की मैं किसी संस्थान के अंतर्गत लेख लिखता था जो की मेरे जीवित रहने के लिए जरूरी मुद्दा बना रहा. पहले जो लिख देता था बस वही, लेकिन अब जो लिखता हूँ वह कई दीदों से होकर गुजरता हुआ जब मेरे सामने आता है तो उसमें मेरा हिस्सा आधा ही बचता है.

मैं यहाँ भी कुछ लिखने ही आया था. इस प्रदेश में खनन माफियाओं और सरकारी तंत्र के बीच सांठगाठ की कई ख़बरें मैं पहले भी जानता था.

शेखर भी पिछले तीन वर्षों से मेरे काम के एक हिस्से को ही कर रहा था.आदमी की जरूरतें जब कुछ एक समान होती हैं तो नज़दिकियां भी बनते देर नहीं लगती. कुछ जरूरतों ने ही हमदोनों को बेहद करीब ला खड़ा किया. शेखर अक्सर सवालों को ही अपनी जरूरत समझता था. उसके जीवन में रंग एक नहीं थे, कई थे. पर उसके सवालों का रंग बहुत तेजी से बदलता था. वह मुझसे भी कई ऐसे सवाल करता जिसे हँसकर टाल देना ही मैंने कई बार वाज़िब समझा. वह अपने आसपास फैले सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी अपने सवालों से परेशान कर देता.कई ऐसे रास्ते थे जिन पर बस वही चल सकता था, इसलिए कई बार वह अकेला पड़ा, कई बार उसकी हिम्मत टूटी. लेकिन वह बिल्कुल जिस तरह टिका रहना चाहता था, उसी तरह टिका रहा.

जहाँ मुझे रहना था , वह पूरा इलाका खनिज संपदा से भरा पड़ा था. पर खनिजों पर मौलिक अधिकार किनका होना चाहिए इस बात पर वर्षों से गतिरोध चल रहा था. वहाँ के जो निवासी थे वे वर्षों से इस बात को लेकर संघर्षरत थे की वह अपनी जमीन, जंगल और पहाड़ को किसी निजी कंपनी के हाथों में नहीं जाने देंगे. संघर्षरत हजारों लोग थे पर उनके अपने हीं क ई लोग निजी कंपनियों के दफ्तरों में जाकर कंपनी की गोद में खेल रहे थे. हाँ, एक बात और की इलाके में शिक्षा की कमी को व्यापक रूप से देखा जा सकता था.

अमूमन यही देखा जाता है की जो इलाका जितना अधिक खनिज संपदा से भरा पड़ा है, वहाँ गरीबी, अशिक्षा, अंधविश्वास उतना हीं अधिक है. अगर वैसे इलाके के लोगों को पढ़ने दिया गया तो वहाँ के लोग भी भारतीय संविधान में अपने मौलिक अधिकार की बातों को समझ लेंगे. कोई नहीं चाहता की गरीब अपने अधिकारों के प्रति सजग बनें. वैसे तो इन इलाकों में आमजन से लिए संविधान का जन्म ही शायद हुआ हो. हाँ, एक वर्ग जरूर संविधान का उपयोग करता रहा है दूसरे कमजोर वर्ग को और कमजोर करने के लिए.

शेखर एक वर्ष पूर्व तक एक ऐसे ही गाँव में काम करता था. जब वह पहली बार उस गाँव में गया था तो लोग उसे देखकर अपने घरों के दरवाजे को बंद कर ले रहे थे. अमूमन तो ऐसा फिल्मों में ही दिखता है. हम अपनी ही जड़ो से कितने दूर कर दिए गये हैं, इतने दूर कि पानी का कोई सोता शायद ही हमतक पूरी तरह पहुँच सके.

अब उस गाँव की कहानी बताना चाहता हूँ जहाँ शेखर सबकुछ छोड़कर अपनी धुन में लगा था.

एक दिन उस गाँव में कुछ सरकारी अफसर अपनी गाड़ियों से पहुँचते हैं , जहाँ सड़क नाम की कोई चीज नहीं है. बिजली का नामो निशान तक नहीं है. न अस्पताल, न स्कूल, कुछ भी ऐसा नहीं जिससे आमजन का सरोकार जुड़ा रहता है. अफसरों के काफिले के पीछे कई गाड़ियों में भरे सरकारी और निजी रंगरूट भी थे. वे लोग कुछ "सर्वे" करते हैं और अगले सप्ताह एक समाजवादी सरकार के हवाले से अख़बार में यह ख़बर दी जाती है कि एक गाँव में प्रचुर मात्रा में कोयला के भंडार का पता चला है.

कुछ पीछे लौटना चाहता हूँ. शेखर को उस गाँव के लोगों को इस बात का भरोसा देने में काफी वक़्त लगा की वह भी एक साधारण आदमी ही है.अंधविश्वास उस गाँव के लोगों में गहरे बसा था.

ठीक उसी समय गाँव में एक औरत की मृत्यु होती है. वह बिल्कुल स्वस्थ्य थी.मृत्यु का कोई लक्षण उसमें नहींं था. घर से कुछ कपड़ो को लेकर वह गाँव के एक छोर पर स्थित तालाब को निकली थी. लौटी तो वह सही ही थी. लौटने के थोड़ी देर बाद ही उसे ग़श आया. उसके मुँह से सफ़ेद झाग निकला और फिर उसका बदन ऐंठने लगा. फिर देखते ही देखते वह अपने छोटे से आंगन में दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो गई.

ठीक उसी वक़्त तालाब से पानी पीकर लौटे कुछ जानवरों ने भी उस औरत की तरह ही दम तोड़ा. बड़ा अजीब था की जानवर और आदमी एक तरह ही मर रहे थे. शायद एक बड़ी व्यवस्था ने उस इलाके में दोनों के बीच के फर्क को समझा ही नहीं . आदमियों का विकास भी आधा-अधूरा ही रहा. गाँव में इस बात ने जोर पकड़ा कि गाँव के जो कुल देवता हैं वे समूचे गाँव से नाराज हो गये हैं. यह कहर उनकी नाराज़गी का ही असर था. आदमी तो इतने बुद्धिमान थे ही कि वे लोग तालाब की ओर फिर कभी नहीं गये. जानवरों का मरना जारी रहा. जहाँ आर्थिक संपत्ति के नाम पर सिर्फ पशु संपदा ही हो, वहाँ के लोगों का इस घटना के बाद टूटना तो स्वभाविक ही था. पूरे गाँव में मुर्दा शांति ने घर कर लिया था. औरत की लाश को तो लोग कहीं दफना आये थे. पर मरे हुए जानवर अभी भी घरों के सामने पड़े थे.

गाँव के कुछ लड़कों से शेखर की बात होती थी. शेखर उनके इशारों को भी कुछ समझने लगा था. अगले दिन गाँव में एक साधु का आना हुआ. समूचा गाँव उस साधु की तरफ दौड़ पड़ा. गाँव वालों को लगा की शायद यही सारी समस्याओं का निदान कर सकते हैं.शेखर ने उस साधु को संदेह के घेरे में ले लिया. उसकी आँखों की चमक, उसका बोलचाल और चाल-ढ़ाल को देखकर ऐसा ही लगा था की वह भाड़े पर भेजा हुआ किसी का दूत है. लोगों की बातों को सुनने के बाद उसने अपना फर्मान सुनाया-" इस गाँव के कुल देवता यहाँ के लोगों से नाराज़ हैं"

"कुल देवता गाँव के नीचे स्थित कोयले के भंडार में दबे हुए हैं"

" तुम लोगों की भलाई वह अब नहीं चाहते "

" उनको खुश करने का एक ही उपाय है कि तुम सब इस गाँव को छोड़ दो"

"ऐसा करने पर तुम लोग जहाँ भी जाओगे तुम लोगों पर उनका प्रताप बना रहेगा"

वह साधु गाँव वालों से उनकी भाषा मे ही बातें कर रहा था.

अनाचक ही रातों रात कई लोगों ने गाँव छोड़ दिया. एकाएक ही वे लोग अपने मूल से बहुत दूर लावारिस बनाकर फेंक दिए गये. मैं इस सवाल में उलझा रहा की भलाई किस बात में है-

"बैठे-बिठाए मारे जाने में"

या " लावारिस बनकर मौत का सामना करने में".

मैं अपने काम बाद लौट आया था. फिर भी शेखर से एक दो दफ़ा बात हुई थी. शेखर ने बताया था कि उसने साधु को एक कंपनी के कॉर्पोरेट दफ़्तर के अंदर बाहर करते देखा था. जो लोग गाँव से निकलकर आ गये थे वे रेलवे स्टेशन पर अपनी रातें बिता रहे थे.

क़रीब एक महीने शेखर से बात नहीं हुई. खोज-ख़बर लेने पर पता चला कि शेखर को वहाँ की पुलिस ने भगोड़ा घोषित कर दिया था. वैसे इलाके में भगोड़ा घोषित किये जाने का एक ही मतलब तो होता है.

मैं समझ चुका हूँ कि शेखर जैसे लौटता रहा था, अब वह फिर कभी नहीं लौटेगा.
मकसद तो उसका शायद कभी कुछ रहा ही नहीं. जब भी वह मिलता था तो कहता कि -" मकसद एक ऐसे प्रभाव को जन्म देता है जो नैसर्गिकता और काल्पनिकता के मध्य में सवार होता है". मैं मज़ाक में ही कह देता की यार-" तुम्हारे मकसद जो आजकल बदले-बदले से लगते हैं, उन्हें तुमसे अधिक पहचानता हूँ". उसका परिचय आखिर मैं किस तरह से करवाऊं. हाँ, वह मुझसे जब भी मिला असहमत होकर ही मिला. वह असहमति का बक्सा लेकर चलता था. असहमति के नाम पर वह नारे नहीं लगाता था, असहमति के नाम पर वह गालियां नहीं देता था, हमला तो वह कर ही नहीं सकता था. असहमति के नाम पर वह जोर-जोर से हँसा करता था. वह तबतक हँसता जबतक कि उसे अपने पेट में दर्द न महसूस होने लगे. वह मेरे क़रीब रहा ,जबतक मेरे साथ रहा, दूर जाने के बाद और भी क़रीब हो गया. वह मेरे साथ जितने दिनों तक रहा, उससे कहीं अधिक दिन उसे दूर गये हो गये.



(निशान्त कहानियाँ लिखते हैं.)

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