और क्या देखनें को बाकी है

                                                                        चक्रधर के कोमल गालों पर जब लूसी का तमाचा लगा होगा तो शायद चक्रधर को फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की वो  शायरी जरूर याद आई होगी।
"और क्या देखनें को बाकी है, आप से दिल लगा के देख लिया"
समय था 12 जुलाई की शाम कालिदास रंगालय पटना में "मुंशी प्रेमचंद" द्वारा लिखित लघु कहानी "विनोद" (मानसरोवर भाग-3) पर आधारित नाटक "देसी मुर्गी, विलायती चाल" के मंचन का। इमेज आर्ट सोसायटी के बैनर तले मंचित इस नाटक का नाट्य रूपांतरण किया था विवेक कुमार और  निर्देशन किया था "शुभ्रओ भट्टाचार्य" ने।
 नाटक वर्तमान समय में भटकतें युवा पीढ़ी के लिए एक व्यंग था, जो अपनी कुछ इच्छाओं की पूर्ति के लिए अपनी सभ्यता/संस्कृति तक को त्यागने में कोई परहेज़ नहीं करतें है।
   
नाटक मुंशी जी की कहानी के साथ शुरू होता है, और कल्पना के रंग पटल पर उभर आता है। जहां विश्वविद्यालय में पढ़ने आए चक्रधर पंडित एम.ए. दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी होतें है जो पश्चिमी सभ्यता संस्कृति से बिल्कुल अलग अपने जीवन को एक ब्रह्मचर्य के समान यापन करतें है. लंबी शिखा से वह यह बताते हैं कि प्राचीन ऋषि-विद्वान इस शिखा से अपनी सर्वज्ञता का प्रचंड प्रमाण दिया करते थे, इस शिखा से किसी तरह की गलत भावना मन में नहीं पलती है बल्कि सकारात्मक ऊर्जा मिलती है इस से।
                                                
  नित्य पूजा-पाठ करना,रोज-रोज अपनी हाथों से सुपाच्य खाना खुद से चेताना और हां अंग्रेजी भाषा से तो वह बहुत दूर-दूर रिश्ता नहीं रखते रहे थे जिस कारण उनका अंग्रेजी भाषा पर पकड़ बहुत कमजोर था। लेकिन उनके ही कॉलेज के कुछ बच्चे ऐसे थे जो पढ़ाई के अलावे सब काम किया करते थे उन्हें चक्रधर की आदतें पसंद नहीं आती थी जिस कारण वे लोग चक्रधर पंडित को सबक सिखाने का प्लान करतें है कि तभी कुछ दिनों बाद उन्हें वो मौका हाथ लग जाता है।
                                       उनके वर्ग में एक अंग्रेजी स्वभाव की लड़की आ जाती है जो अति सुंदर होती है। उस लड़की को देख कर हिंदी और इतिहास के भी छात्र अब दर्शनशास्त्र में अपनी रुचि रखने लगे है। छात्र उस अंग्रेजन लड़की लूसी की बात सुनने और आस-पास बैठने को व्याकुल रहतें है।

इधर सामान्य पुरुष स्वभाव से परिपूर्ण पंडित चक्रधर पर भी प्रेम का जादू चल जाता है, वह छुप-छुप कर उस लड़की को देखता तो है पर मन में हमेशा कोई देख न ले ये भावना जरूर होती है,कि तभी विद्यालय के कुछ ऐसे खिलाड़ी जो निशाना देख कर कभी चुकतें नहीं ओ चक्रधर को अपना निशाना बना लेतें है, और अंग्रेजीयन लड़की लूसी के नाम से पत्राचार कर पंडित चक्रधर को अपने जाल में फंसा लेतें है।

उनके जाल में फंस चक्रधर अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूल जाता है और पश्चमी सभ्यता के अनुरूप जीवन यापन करने लगता है। इधर झूठी प्यार की मकड़ जाल में फंसता हुआ चक्रधर अपने कॉलेज के उन लड़को की सारी बातें मानते है जो वह कहतें जातें है। अपनी मित्र मंडली की बात में आ कर पंडित चक्रधर पास में रुपया नहीं होने के वावजूद भी एक भोज का आयोजन करता है जिसमें लूसी को आमंत्रण किया जाता है कि तभी इस प्रीति भोज में सारे सचाई का पर्दाफाश हो जाता है।
                                     यहाँ चक्रधर की गलती बस इतनी होती है कि वह अपनी महत्वकांक्षा से वशीभूत होकर अपने अस्तित्व को ही खो देता है जिसके कारण अंत में उसे अपमानित होना पड़ता है, खैर ये सब देख चक्रधर ये जान जाता है कि इस सब झंझटों का कारण बेशक उसकी मित्र मंडली है, पर अब झंझट से निवारण का उपाय तो उसे ही ढूंढना था, सो उसने उपाय ढूंढते हुए यह निर्णय लेता है कि वह यहां से सब कुछ त्याग कर चला जाएगा । वह बहुत शांत रहने लगता है। वह अब एक पल भी लूसी के नाम को भी नहीं सुनना चाहता है। और एक दिन गायब ही जाता है। इस तरह मुंशी जी की कहानी ख़त्म होती है।
               नाटक में अभिनय की बात करूं तो नाटक का नायक चक्रधर के रूप हीरालाल जी ने अपने कला का सम्पूर्ण उपयोग किया है। अभिनेत्री के रूप में अदिति सिंह जिनका की नाटक में अभिनेता के अपेक्षा कुछ ज्यादा संजीदा अभिनय नहीं था फिर भी जितना था उन्होंने उसे सफल करने की भरपूर कोशिश की है।

नाटक में सह कलाकारों के अभिनय में कुछ कमियां नज़र आ रही थी जो ख़ारिज तो नहीं की जा सकती थीं लेकिन चक्रधर के अभिनय ने दर्शक को उस तरफ ध्यान आकर्षित नहीं होने दिया।
नाटक में सूत्रधार के रूप में निशांत कुमार प्रियदर्शी का अभिनय तारीफ के काबिल था।
        मंच सज्जा और परिकल्पना की बात करूं तो मंच कुछ खास नहीं कहा जा सकता था, मंच सज्जा सिर्फ नाटक को समझाने के काबिल थी  बाकी उसमें कुछ कमियां थी जो सुधारी जा सकती थीं ।
हां बहुत दिनों के बाद ख़ुशी की बात आज ये रही कि आज मंच की कमियों को प्रकाश परिकपना ने ढक दिया था। आज सही समय पर उचित तरह का प्रकाश देखने को मिला। प्रकाश परिकल्पक राजन कुमार सिंह और राजीव जी का काम काबिले तारीफ लगा।
    रूप सज़्ज़ा की जहां तक बात है तो चक्रधर को नाटक के लायक रंग-रूप में बिल्कुल सही तरह से रूप सज़्ज़ा विशेषज्ञ (जीतू जी) ने उतारा था, बाकी कलाकार भी सटीक थे।
            अपने अनुभव और लगनशीलता के साथ "विवेक कुमार" और "शुभ्रओ भट्टाचार्य" के काम को आज जिस तरह से दर्शक दीघा के लोग अपने तालियों की गड़गड़ाहट से परितोषित कर रहे थे, जो नाटक की सफ़लता का मूल-प्रमाण पत्र था।

निर्भय किशोर पांडेय

पटना यूनिवर्सिटी में स्नातकोत्तर पत्रकारिता के छात्र रहे हैं।
नाटक से जुड़े हुए हैं और समीक्षा लिखतें है.

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