इसे महज संयोग ही कहा जा सकता है की परसों अर्थात् 13 नवंबर को मेरे प्रिय लेखक मुक्तिबोध की जन्म शताब्दी थी. रायपुर में उनके जन्म शताब्दी को लेकर जो आयोजन हुआ था, उसमें मेरा भी जाना हुआ था. वहाँ पर भी कुछ दोस्तों से कुंवर नारायण को लेकर बातें हुई थीं. यह भी संयोग ही है की मुक्तिबोध ने भी दुनिया को अलविदा मस्तिष्काघात के चलते ही कहा था. कुंवर नारायण को भी करीब तीन महीने पहले मस्तिष्काघात लगा था और आज यह महान आत्मा हमारे बीच से सदा के लिए अलविदा कह गयी.
लेकिन वास्तव में कवि मरते नहीं. मैंनें जाना है की सोना, आभूषण और कवि समय के साथ और भी अधिक महान और मूल्यवान बनते हैं.
आज के कठिन समय में समाज को कुंवर नारायण जैसे कवियों की और भी जरूरत है. कुंवर नारायण ने अपने आपको हर विधा में आजमाया चाहे वह कहानी लेखन हो, कविता, निबंध, आलोचना और काव्य तक.
वर्ष 2009 में कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. कुंवर नारायण एक ऐसे इंसान थे जो खबर बनने से दूर रहे और बहुतों के लिए आज भी एक अनजान नाम हैं. ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर राजेन्द्र यादव ने तीखी टिप्पणी कि थी की '" आज के समय में हिन्दी का ऐसा कोई भी पुरस्कार ऐसा नहीं है। जिसे खरीदा न जा सकता है.
इस बात पर कुंवर नारायण ने कहा था कि वैसे तो विवादों का कोई चेहरा और चरित्र नहीं होता पर राजेद्र् यादव जैसे लोग ही माहौल को बनाए रखते हैं.
कुछ दिनों पहले मैंने कुंवर नारायण की कविता संग्रह "वाजश्रवा के बहाने" को पढ़ा और उसके बाद मेरे मन में तरह -तरह के विचार तैरने लगे. एक ऐसे कवि जिन्होंने ने कठिन से कठिनतम समय में भी महान मानवीय मूल्यों को बरकरार रखकर जिंदगी के प्रति एक विशेष लगाव, आग्रह,सम्मान का सृजन किया.
मेरे मन में जीवित हैं उनके शब्द और मेेरे द्वारा बनाया गया वह चित्र जिसमें नचिकेता अपने पिता से गले मिलते हुए आश्वस्त होता है कि उसके पिता जीवन और संसार आज भी जीवित हैं. नचिकेता कल्पना करता है कि माँ महज शब्द नहीं, बल्कि एक भाषा है, एक दुनिया. नचिकेता लौटना चाहता है अपने घर जहाँ एक खूला आँगन हो और दीवारों पर गुदे हो तुतलाते बच्चों के हस्ताक्षर.
नचिकेता के बहाने कुंवर नारायण ने अपने घर और अपने गंतव्य के महत्व को इंगित किया है. पलायनवादियों का अपन घर नहीं होता, कहाँ होता है अप्रवासियों का कोई अपना घर. पर मुझे उम्मीद है की एकदिन मैं लौटूँगा अपने घर, कुंवर नारायण की कविताओं के बहाने ही सही.
कुंवर नारायण अपने आप में एक संपूर्ण दुनिया थे.फिल्म समीझा से लेकर कला के विषयों पर भी उन्होंने गहनतम शोध किया. कुंवर नारायण की कविताओं में इतिहास और मिथक, परंपरा और आधुनिकता का एक अनूठा संगम है.कुंवर नारायण हमारे बीच से बस शरीर से दूर हुए हैं. वह हमें मिलते रहेंगे जबभी हम उनकी कविताओं से गुजरेंगे. जैसे कि कुंवर नारायण हमारे बीच इस तरह लौटते रहेंगे कविताओं के माध्यम से जैसे लौटती है पानी में एक मछली और एक मरी हुई मछली भी पानी मेंं ही मिलती है :
अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से
अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं
अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा
अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा.
(निशान्त कहानियाँ लिखते हैं और किताबें पढ़ते हैं.)
(निशान्त कहानियाँ लिखते हैं और किताबें पढ़ते हैं.)
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