बैसाख का महीना - निशान्त



                                  बैसाख का महीना बीत गया था और जेठ भी अपने चरम था.आम का पेड़ फल से लदा हुआ था और सूरज के ताप से फल पकने ही वाले थे. जिन लोगों का बगीचा था और जिनको बगीचे की रखवाली मिली हुई थी, वे हिसाब लगाने में व्यस्त थे कि इस साल आम से कितना आमद होगा.औरतें बेचैन थीं कि आम कब घर आये और जल्द से जल्द नये सगे-संबंधियों के यहाँ भेज दिया जाये. कुछ लोग आषाढ़ की पहली बारिश के इंतज़ार मे थे. आम के फल में रस का संचार पहली बारिश के बाद ही होता है. काली घटा के संग आम खाने का आनंद अलग ही होता है. खासकर मालदह आम का स्वाद तो एक-दो बारिश के बाद ही चढ़ता है.

सोनपुर गाँव में आम का सबसे बड़ा बगीचा संप्रदा प्रसाद का ही था. गाँव के दक्षिणी छोर पर दस बीघा जमीन में फैला हुआ आम का बगीचा. सैकड़ो आम के पेड़, तरह-तरह के. चौबीस प्रकार का पेड़ था बगीचा में. अचार के लिए अलग पेड़, लू से बचाव के लिए अलग पेड़, कंठ का प्यास मिटाने के लिए अलग पेड़ और बाकी जो बचा वह जीभ और पेट पूजा के लिए.

संप्रदा प्रसाद का खानदान पुराना जमींदार था. उनके दादा के नाम से अंग्रेजी अफसर चार आने का रसीद काटते थे. संप्रदा बाबू के पिता जी फक्कड़ आदमी थे.उनको जर-जमीन से मतलब नहीं था, कहते तो हैं कि उनको जोरू से भी कोई खास मतलब नहीं था.काशी-कामख्या की यात्रा करते ही उनका जीवन बीता और उनकी अनुपस्थिति में ही संप्रदा बाबू का जन्म हुआ था. माँ ने अपने पुत्र को उसके पिता की छत्रछाया से दूर ही रखा. फिर भी एक कहावत है कि-

" पिता के प्रभाव से दूर रहने पर पिता वाला गुण-व्यवहार पुत्र के व्यक्तित्व में और सघनता से घर कर जाता है".

पिता से दूर रहने के बावजूद भी संप्रदा बाबू में फक्कड़पन आ गया. संप्रदा बाबू को काशी-कामख्या का फेर तो नहीं लगा लेकिन भांग का ऐसा लत लगा कि क ई बीघा खेत पोखर में बदल गया. भाँग ने संप्रदा बाबू के जीवन में ईश्वर का स्थान ले लिया. फाल्गुन से जो भाँग घोंटने का सिलसिला चालू होता तो जाकर आषाढ़ के अंत में ही थोड़ा नरम पड़ता.बरसात का मौसम भंगेड़ियों के लिए विभीषिका के समान होता है. पीने पर भी मन जस का तस बना रहता. दिन और रात का अंतराल बना ही रहता है.

फाल्गुन से आषाढ़ तक संप्रदा बाबू का संसद आम वाले बगीचे में ही चलता. वसंत के आगमन के साथ ही बगीचे में एक झोपड़ी बना दिया जाता और चार चौकी लग जाता. उसके बाद अमला-फौज़दार की कौन कमी. उसके बाद सब दिन का हिसाब बाईस पसेरी ही.संसद का बहस निरंतर चार महीने तक बिना अवरोध के चलता रहता. गेहूँ, दलहन सब काटकर संप्रदा बाबू के खलिहान में पहुंचा दिया जाता. वैसे यह सब क ई बार उनकी जानकारी के अभाव में ही होता. संप्रदा बाबू का विवाह दस की उम्र में ही हो गया था. पच्चीस बरस आते-आते आठ बाल-बच्चे भी हुए लेकिन कोई आठ महीने से ज्यादा दिन तक दुनिया नहीं देख सके. संप्रदा बाबू की घरैतिन(पत्नी) भी सबकुछ छोड़कर भगवान भक्ति मेंं लीन रहती.ईश्वर भक्ति में लीन रहना सबके बस की बात नही है. वे औरतें जो सबकुछ पा चूकी होती हैं या वे औरतें जो इतना अधिक खो चूकी होती हैं कि कुछ पाने की ईच्छा से कोसों दूर आ गई हैं ,ही ईश्वर का सच्चा आराधना करती हैं. भला आठ संतानों को खोने के बाद किसकी ईच्छा इतनी प्रबल हो सकती है.साधारण औरत तो गंगा मैया होती नहीं है.

संप्रदा बाबू का संसद दिनभर जमा रहता था. संप्रदा बाबू के सच्चे यार थे चंद्रभूषण ख़लीफ़ा. दोनों यारों के यार थे. एक साथ उठना-बैठना से लेकर महादेव की आराधना तक दोनों साथ ही करते थे.

चंद्रभूषण ख़लीफ़ा वैद्यों के वैद्य थे. साँप काटने पर शहर से लोग इनके पास ही आते थे. सरकारी डॉक्टर को उनके आगे कोई पूछता तक नहीं था.क ई दफा तो डॉक्टर ने जवाब दे दिया पर चंद्रभूषण के मंत्र ने कमाल कर दिया और रोगी एकदम चंगा हो गया.

गेहुमन साँप काटने पर मौत को तय मान लिया जाता है. लेकिन चंद्रभूषण गेहुमन के विष को पल भर में पानी बना देने के लिए मशहूर थे.कहावत भी है कि-

" गेहुमन काटे दाब से तो क्या सुने गुणी के बाप से".

लेकिन चंद्रभूषण गुणियों के जन्मदाता माने जाते थे. आधा घंटा के भीतर मरीज को चंगा कर देते थे.वह अपने पास हमेशा लिसौढ़ा का एक छड़ी रखे रहते थे.

चंद्रभूषण एक क़िस्सा बताते थे कि-

" पहले विषधर साँप, बिच्छू के काटने पर मृत आदमी को मुखाग्नि नहीं दिया जाता था बल्कि लाश को केले के थंब पर बाँधकर नदी की धारा में छोड़ दिया जाता था".

चंद्रभूषण ने गंगा नदी में एकबार एक ऐसे ही मृत व्यक्ति को पानी के सतह पर देखा. उसके बाद तैरकर थंब को घाट के किनारे लाया.चंद्रभूषण को यकीं था कि यह आदमी मरा नहीं है बल्कि बहुत अधिक विष फैल जाने से मृतप्राय स्थिति मे हैं. चंद्रभूषण ने अपने कायदे से उसका ईलाज शुरु किया और कुछ दिनों बाद वह आदमी चंगा हो गया. बाद में संप्रदा बाबू के संसद में भाँग घोंटने की जिम्मेदारी उसी आदमी को दिया गया.

संप्रदा बाबू और चंद्रभूषण के पिताओं में भी दोस्त रही है. संप्रदा बाबू के पिता काशी-कामख्या घूमते-घामते सिद्ध ओझा हो गये थे और चंद्रभूषण के पिता जी रात को जमींदारों के यहाँ से बैल खोला करते थे. संप्रदा बाबू की माने तो चंद्रभूषण ख़लीफ़ा के बाबू जी पकिया(पक्का) बैल चोर थे. और अगर चंद्रभूषण की मानें तो बैल चोरी करने का जतरा(किसी कार्य को पूर्ण करने का शुभ दिन) संप्रदा बाबू के पिता जी ही तय करते थे. और इस तरह दोनों में साम्य बना रहा.

बगीचा में बैठकर भी दोनों इसी बात पर टीका-टीप्पणी करते रहते. चंद्रभूषण कहते कि संप्रदा बाबू के पिता जी मरने से पहले एक चिट्ठी में अपने नये ठीया का पता लिखकर गये थे और चंद्रभूषण की रोज़ रात को उनसे बात होती है.

चंद्रभूषण का मानना था कि-

" मरने के बाद दोनों आदमियों को नरक में यमराज के बगल वाला कमरा मिला है".

इसपर झिझकते हुए संप्रदा बाबू का जवाब आता कि-

"ऐ! चंद्रभूषण, तुम्हारे बाबू जी वहाँ भी यमराज का भैंसा चोरी कर लिए हैं".

इसपर चंद्रभूषण हाज़िरजवाबी के साथ बोलते कि-

"मने!! हमरे बाबू जी ने हमदोनों के लिए स्वर्ग में स्थान तय कर दिया है. यमराज बिना भैंसा के कैसे हमलोगों को अपने पास ले जायेंगे. अब यमराज भी नरक मे ही ठेला-ठेली करते रहेंगे".

दोस्ती में उम्र और भूगोल अधिक मायने नहीं रखता. दोनों का उम्र बदला पर दोस्ती का भूगोल स्थायी बना रहा.अगर बदला कुछ तो चंद्रभूषण के लिए समस्याओं का भूगोल और स्थिति. ओझैती करके अब जीवन यापन करना मुश्किल हो रहा था और भाँग का असर भी अब सीधे दिमाग पर पड़ने लगा था. सबसे छोटी बेटी का ब्याह भी तय कर आये थे.पर ब्याह में देने और खर्च करने के लिए उनके पाले था ही क्या.सबकुछ तो बीक चुका था दो बड़ी बेटियों के शादी मे ही. लक्ष्मी के नाम पर घर में कुलदेवी का हार बचा हुआ था. यह हार चंद्रभूषण के जन्म लेने उनके ननिहाल से उनकी माँ को मिला था जिसको उनकी माँ ने घर की कुलदेवी को अर्पित कर दिया था. शादी का अंतिम मुहूर्त अगले महीने तक है और फिर आषाढ़ में शादी कौन करता है. आषाढ़ में शादी करने पर बेटी के घर में कभी बरकत नहीं होता. धन आषाढ़ की बारिश में बह जाता है. चंद्रभूषण इसी चिंता में रहते कि उनकी सबसे छोटी बेटी का निबाह कैसे हो सकेगा.

यह बात संप्रदा बाबू को पता चली.अगले दिन वह चंद्रभूषण के दालान पर हाज़िर हुए.चंद्रभूषण को सोते देखकर संप्रदा बाबू ने शगूफा छोड़ा कि-

" चैत सोवे रोगी बैखाख सोवे भोगी जेठ सोवे राजा".

निंद खुलते ही चंद्रभूषण तमतमाकर बोले कि- आप सोईयेगा जेठ में आप राजा जो हैं. गरीब को का का जेठ और आषाढ़ और चैत. हमारे लिए तो हर महीना दुख का पहाड़ लिए आता है. पुष में रजाई नहीं, आषाढ़ में खाट के ऊपर छत नहीं, आशीन(आश्विन महीना) में खाने को गौ-रस नहीं. संप्रदा बाबू को बात समझते देर नहीं लगी. झट से कुर्ता में हाथ डाला और लक्ष्मी का नाम लेकर जो कुछ था चंद्रभूषण के ना-नुकुर करने के बाद भी उनके हवाले कर दिया और कड़ककर कहा कि-

" आप कैसे सोच लिए रहें कि छोटकी का ब्याह नहीं होगा. आगे जो कुछ है उसके लिए निश्चिंत रहिए. जाकर दिन तय कर आईये".

इसी बीच मे  संप्रदा  बाबू की घरैतिन का तबीयत बिगड़ा.अब घर में कोई देखरेख करने वाला तो था नहीं. संप्रदा बाबू का अमला फौजदारी सब छूट गया.दोस्ती-यारी सब पीछे रह गया.वह घर में ही रहने लगे.ईलाज के बाद भी स्थिति मे सुधार नहीं हुआ.अकेलापन क्या होता है संप्रदा बाबू को अब मालूम पड़ने लगा था. उनकी घरैतिन का दवा-दारू से भी विश्वास हट गया.ओझैती का भी कुछ असर नहीं हुआ.संप्रदा बाबू ने अपनी घरैतिन को कभी संतान की कमी का भान न होने दिया.जो बना, जितना बना सब किया. घरैतिन ने भी एक दिन साम्य भाव से कहा कि-

"नीम हकीम खतरे जान". अब जो प्रारब्ध है उसको काहे का कोई  टाले.समय पूरा हो गया.आपने तो मेरा निबाह कर ही दिया लेकिन आप किसी पर बोझ नहीं बनिएगा.अपना संतान नहीं है तो मरन(मृत्यु) भी अपने हाथ ही चुनियेगा.कुछ दिनों के बाद संप्रदा बाबू हमेशा के लिए अकेले हो गये.उनके घर का आँगन हमेशा के लिए खाली हो गया.ड्योढी और ओसारे की अरूणिमा हमेशा के लिए मलिन हो गई. रात को सोते वक़्त संप्रदा बाबू को ऐसा मालूम होता कि आँगन मे आठो बच्चे कोई जादू का खेल खेल रहे हैं. सब जमीन-जायदाद पीछे रह गया.

एक  रात को संप्रदा बाबू ने अपना सब कुछ अदृश्य को हवाले करते हुए विदा ली और जाकर गंगा मैया में समा गये.



(निशान्त कहानियाँ लिखते हैं.)

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