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मील के पत्थर
एक खत पोस्ट ऑफिस के नाम
मेरे प्यारे पोस्ट-ऑफिस ख़त लिखने की बात जब भी होती है तुम्हें ना जोड़ना कैसे हो सकता है। लोग अब तुम्हारे ठौर का रास्ता भूल गए हैं। तो सोचा तुम्हारा ही हाल-चाल पूछ लूँ। जैसा कि तुम्हें देखता हूँ मैं। जंग लग रहे शरीर पर से पेंट उतर रही है। क्या ये सब तुम्हें पता था कि ऐसा भी हो सकता था तुम्हारे साथ। तुम तो हर-दिल अज़ीज़ हुआ करते थे। अनेक भावों से भरे पत्रों को रखते थे अपने आरामगाह में मसरूफ़। डाकिया जो कभी सबका खासमखास हुआ करता था, स्याही में छिपे लब्जों को किश्त-दर-किश्त अपने सही पते पर पहुँचा दिया करता था।यहाँ तक कि खाली कागज़ भी एक सफ़ल और खास पैगाम हुआ करती थी। तुम तो रिश्तों के बनने-संवरने का मुख्य-केंद्र हुआ करते थे। और फ़िर तुम्हारा इस बियाबां में होना! क्या बदलाव इतना ज़रूरी है? शायद हाँ पर मुझे तो किसी भी चीज़ का बिसरना कचोटता ही है। खैर! तुम होगे शायद कही, किसी सुदूर गाँव में निभा रहे होगे अपना रिश्ता, ऐसा जरूर होगा। तुम्हारे होने के सफरनामे का सुबूत दिल के शामियाने में हमेशा रहेगा। तुम्हारी यादों के अनेक बिम्ब हैं 'लाल-बक्से'! जैसे उस छोटे बच्चे का अपने बाबा के कंधे पर चढ़...
वीकेंड डायरी : गम-ए-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज्मर्ग इलाज
( इस लेख का संक्षिप्त रूप आज दैनिक भास्कर से प्रकाशित हुआ है. लिखते हुए कुछ ज़्यादा लिख गया था, सो बाकी इधर है. - अंचित) पांच साल की औपचारिक ट्रेनिंग और उसके पहले और बाद मिला कर कुछ दसेक साल का वास्ता साहित्य और कविताओं से, इतने सालों के अनुभव से जो एक वाजिब निष्कर्ष निकल कर सामने आता है वो ये कि हमलोग दरअसल पूरा जीवन एक बढ़िया पाठक बनने की प्रक्रिया में होते हैं और बढ़िया पाठक पूरी तरह से निर्भर होता है बढ़िया कवियों,लेखकों पर. पैमानों पर बहस तो चंगेज़ खान से ज़माने से शराबबंदी तक जारी है और रोज़े क़यामत तक उसको दरबदर चलना है. पर फिर भी गुस्ताखी माफ़. बढ़िया पाठक जो होता है वो घाघ होता है, अपना मसाला, अपनी दवा, उसके चंगुल में अब फंसे तो तब फंसे. जैसे कोई बगुला. (सुधांशु फिरदौस अपनी ताज़ी कविता में लिखते हैं , "वक़्त एक बगूला है जो किसी को भी अपने चपेटे में ले सकता है" भैया, ये बढ़िया पाठक भी ऐसा ही है. खैर सुधांशु पर बाद में आते हैं.) बगुले हमेशा फ़िराक में रहते हैं और पाठक भी ऐसे ही हैं.और अगर मैं मान लूं कि कई धाकड़ बगुलों के बाद, मेरा भी नम्बर आता है तो काम की बात शुरू हो. हर ...
मनोज कुमार झा : हर भाषा में जीवित-मृत असंख्य लोगों की सांस बसती है
मनोज उन थोड़े कवियों में से हैं जो लिखते हैं तो अपनी भाषा से भाषा के बाकी पथों को तोड़ते हुए चलते हैं. उन थोड़े लोगों में से भी हैं जो rigorously पढ़ते हैं और पाश्चात्य चिंतकों और दर्शन पर उनकी कमाल की पकड़ है. 1. कविता क्या है आपके हिसाब से?क्यों लिखनी शुरू की? हमलोग बातचीत शुरू करें इससे पहले मैं उद्धरण उदृत करना चाहूँगा heraclitus को , जो कहते हैं, कि Let us not conjecture at random about great things. कविता क्या है , इसको कई लोगों ने कई तरह से कहा है , मैं अभी तक उस स्थिति तक नहीं पहुंचा हूँ जहाँ आके पूरे जोर से कह सकूं की कविता क्या है, हाँ यह जरुर बता सकता हूँ की कविता क्या नहीं है . कोई कविता देखूं तो कह सकूं की यह कविता नहीं है, क्यों नहीं है . चूँकि मैं दूसरा काम मैं जानता नहीं था , खेल में कमजोर था , पढने में ठीक ठाक था, कविता लिखने लगा. 2. पठन का रचना में क्या योगदान है, आपको क्या लगता है? बहुत योगदान है , दृष्टि देता है , पता चलता है कि आपकी परम्परा में क्या कुछ हो चुका है और आप कहाँ है...