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मील के पत्थर
जब तक आदमी का होना प्रासंगिक है कविता भी प्रासंगिक है - कुमार मुकुल
आज से हमलोग अपनी इंटरव्यू वाली श्रृंखला की शुरुआत कर रहे हैं. इस श्रृंखला में हम कवियों से बात करेंगे और उनकी मनोस्थिति और कविता के प्रति नजरिया जानेंगे. हर कवि से हमने एक ही तरह के सवाल पूछे हैं और आगे हम देखेंगे कि उनमें किस तरह भिन्नता और समानताएं हैं. कुमार मुकुल जाने-माने कवि हैं और अभी हाल ही में उनका नया कविता संग्रह आया है. उन्होंने हमारे सवालों के जवाब दिए :- १. कविता क्या है आपके हिसाब से? क्यों लिखनी शुरू की? कविता अपनी बातों को रखने का एक रूपाकार या फार्मेट है। एक कन्विंश करने वाला फार्मेट। पिता बचपन में रामायण,गीता आदि के हिस्से याद कराया करते थे। फिर दिनकर की किताब 'चक्रवाल', मुक्तिबोध की 'भूरि भूरि खाक धूल', कविता के नये प्रतिमान आदि उनकी टेबल पर रखे होते थे जिन्हें पढते हुए लगता है कविता की समझ आई और फिर उस समझ को प्रकट करने की ईच्छा से कविता का आरंभ हुआ होगा। २. पठन का रचना में क्या योगदान है, आपको क्या लगता है? पढने का तो योगदान है ही। यह पढना किताब तक सीमित नहीं रहता कलाकृतियों और जीवन को भी साथ साथ पढना होता है। पढना ही मनुष्...
किसी तस्वीर में दो साल - उपांशु
सौंफ की पतली डंठलों पर ओस की बूंदों में और आसमां की आँखों पर चमकते फ़्लैश में कुहासे की तस्वीर जो खिंचती है , कैमरे की खींची हुई तस्वीर से कहीं बेहतर है . दो साल बाद , सबा , जब यह तस्वीर रंकेश को दिखाएगी , सर्द सुबहों को उठने की आदत न होने से मचल उठेगा वह एक क्षण के लिए ही , फिर नींद प्यारी होने की वजह से कोहरे के लिए अपना प्रेम रातों में ही ज़ाहिर करना शाइस्ता समझेगा . लेकिन दो साल बाद , ठंड उसे सिर्फ बेचैनी ही दे पाएगी , प्रेम या प्रेम की गर्माहट में उत्पन्न हुई आकांक्षाएं भी जिससे उबार लाने में विफल हो जाएं . तत्काल अज्ञानता के बुलबुले में प्रागैतिहासिक ख़ुशी से लबरेज़ आसमां घंटे का चौथाई हिस्सा एक तस्वीर के नाम कर देती है . सौंफ की हर डंठल पर ओस की बूँदें , न कम न ज्यादा ; गुरुत्वाकर्षण की मुरीद सब एक सी कि पारदर्शी मोतियों की एक लड़ी सौंफ की हर सब्ज़ छड़ी से गिरे तो मिटटी के फर्श पर केवल एक ही आवाज़ हो . कुहासा तने ...
अपना शहर और रंगमंच
अधिकांश लोग समझते हैं सपनो का घर है रंगमंच और सारे अभिनेता जगाते हैं नशा अंधेरे कमरे में.. ब्रतोल्त ब्रेख्त का यह काव्यांश यह बतलाने के लिए काफी है कि फिलवक्त रंगमंच के संबंध में लोगों ने किस प्रकार की राय बना रखी है. बहरहाल आज लोगों का इस प्रकार से सोचना भी कहीं ना कहीं जायज हीं जान पड़ता है ! वर्तमान समय स्वयं अपने आप में इस बात का गवाह है जो हमारे देश के लोगों में इन दिनों सोचने-समझने की क्षमता कम हुई है, साथ हीं कायदे से पढ़ने-लिखने वाले लोग भी लगातार कम हो रहे हैं. यह भी इसका प्रतिफल हीं है जो मोटे दिमाग वाले लोगों का हुजूम हमारे इर्द-गिर्द इतना ज्यादा बढ़ गया है जो कि सरकार चुनने से लेकर, सच्ची कला की परख करने और चीजों को देखने-समझने तक में अधिकांश लोग एकदम से गलत दिशा की ओर अग्रसर हो रहे हैं. इन्हीं बातों के कारण वह आजकल काफी चिढ़ा हुआ सा रहता था तथा लोगो से बातचीत करते हुए भी उसकी बातों में चिड़-चिड़ापन देखा जा सकता था. वैसे उस समय में भी जब हिन्दी सिनेमा की कद्र करनेवाले ज्यादातर लोग यश चोपड़ा की फिल्मों का मुरीद हुआ करते थे उसे अनुराग कश्यप की फिल्...