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मील के पत्थर
अपना शहर और रंगमंच
अधिकांश लोग समझते हैं सपनो का घर है रंगमंच और सारे अभिनेता जगाते हैं नशा अंधेरे कमरे में.. ब्रतोल्त ब्रेख्त का यह काव्यांश यह बतलाने के लिए काफी है कि फिलवक्त रंगमंच के संबंध में लोगों ने किस प्रकार की राय बना रखी है. बहरहाल आज लोगों का इस प्रकार से सोचना भी कहीं ना कहीं जायज हीं जान पड़ता है ! वर्तमान समय स्वयं अपने आप में इस बात का गवाह है जो हमारे देश के लोगों में इन दिनों सोचने-समझने की क्षमता कम हुई है, साथ हीं कायदे से पढ़ने-लिखने वाले लोग भी लगातार कम हो रहे हैं. यह भी इसका प्रतिफल हीं है जो मोटे दिमाग वाले लोगों का हुजूम हमारे इर्द-गिर्द इतना ज्यादा बढ़ गया है जो कि सरकार चुनने से लेकर, सच्ची कला की परख करने और चीजों को देखने-समझने तक में अधिकांश लोग एकदम से गलत दिशा की ओर अग्रसर हो रहे हैं. इन्हीं बातों के कारण वह आजकल काफी चिढ़ा हुआ सा रहता था तथा लोगो से बातचीत करते हुए भी उसकी बातों में चिड़-चिड़ापन देखा जा सकता था. वैसे उस समय में भी जब हिन्दी सिनेमा की कद्र करनेवाले ज्यादातर लोग यश चोपड़ा की फिल्मों का मुरीद हुआ करते थे उसे अनुराग कश्यप की फिल्...
किसी तस्वीर में दो साल - उपांशु
सौंफ की पतली डंठलों पर ओस की बूंदों में और आसमां की आँखों पर चमकते फ़्लैश में कुहासे की तस्वीर जो खिंचती है , कैमरे की खींची हुई तस्वीर से कहीं बेहतर है . दो साल बाद , सबा , जब यह तस्वीर रंकेश को दिखाएगी , सर्द सुबहों को उठने की आदत न होने से मचल उठेगा वह एक क्षण के लिए ही , फिर नींद प्यारी होने की वजह से कोहरे के लिए अपना प्रेम रातों में ही ज़ाहिर करना शाइस्ता समझेगा . लेकिन दो साल बाद , ठंड उसे सिर्फ बेचैनी ही दे पाएगी , प्रेम या प्रेम की गर्माहट में उत्पन्न हुई आकांक्षाएं भी जिससे उबार लाने में विफल हो जाएं . तत्काल अज्ञानता के बुलबुले में प्रागैतिहासिक ख़ुशी से लबरेज़ आसमां घंटे का चौथाई हिस्सा एक तस्वीर के नाम कर देती है . सौंफ की हर डंठल पर ओस की बूँदें , न कम न ज्यादा ; गुरुत्वाकर्षण की मुरीद सब एक सी कि पारदर्शी मोतियों की एक लड़ी सौंफ की हर सब्ज़ छड़ी से गिरे तो मिटटी के फर्श पर केवल एक ही आवाज़ हो . कुहासा तने ...
निर्मल करे जो मन... - निशान्त रंजन
"मैं मानता हूँ , मुझे पता है कि क्या और कौन चिरकालिक है जो एक सभ्यता संस्कृति की शहर की तरह सफेद आकाश में भी जीवित रहेगा जहाँ प्रकाश की किरणें भी अपना समापन देखती हैं." निर्मल वर्मा को पढ़ते समय रिल्के की कुछ पंक्तियों की याद कुछ यूँ आती है जैसे एक धुंध को चीरता हुआ प्रकाश हमारे सामने आता और आनेवाले कोहरे और धुंध को स्थगित कर देता है. निर्मल वर्मा को पढ़ते वक़्त कुछ ऐसा आभास हुआ की जैसे निर्मल वर्मा को पढ़ने का सबसे सही समय सर्दी का मौसम ही है, कड़कड़ाती हुई ठंड. यूं भी निर्मल वर्मा की बहुत कहानियों का तानबाना शिमला और पहाड़ी और शीतल प्रदेशों में ही बुना गया है. निर्मल वर्मा की लेखनी पर प्राग देश का एक अनूठा प्रभाव देखने को मिलता है. इस प्रभाव को हम "वे दिन" उपन्यास को पढ़ते वक़्त देख सकते हैं. प्राग की बर्फबारी और ऊजले-सफेद बर्फ की चादरों का वर्णन एक पाठक को उसके हिस्से की खुशी देती है क्योंकि वह किताब पढ़ते वक़्त एक असिमित यात्रा भी कर रहा होता है. निर्मल वर्मा को पढते वक़्त मुझे एकांत में रहना अच्छा लगता है. भीड़भाड़ और कोलाहल से मुक्त दुनिया जहाँ शोर के नाम पर हम दि...